Hindi Kahani Abhyas Ki Aankh | अभ्यास की आंख
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अभ्यास की आंख
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घटना द्वापर काल की है। कौरव और पांडव राजकुमार उन दिनों गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में रहते थे। उस समय आश्रम में सभी छात्र व गुरुजन एक ही स्थान पर इकट्ठे बैठकर खाना खाया करते थे। एक स्थान पर खाना बनता। सभी लोग एक दूसरे का सहयोग करते व अंत में इकट्ठे बैठकर गुरुजी के साथ ही खाना भी खाते।
उन दिनों प्रकाश की व्यवस्था केवल दीपक द्वारा ही होती थी। एक बार सभी राजकुमार दीपक की रोशनी में रात्रि को जब भोजन ग्रहण कर रहे थे। उसी समय एक तेज हवा का झोंका आया और दीपक बुझ गया। उस स्थान पर अंधकार छा गया। अंधेरा इतना ज्यादा था कि हाथ को हाथ नहीं दिख रहा था।
परंतु अर्जुन सहित सभी राजकुमार उस अंधेरे में भी भोजन कर रहे थे। सभी राजकुमार तो भोजन का आनंद ले रहे थे। परंतु अर्जुन को जैसे कुछ और मिल गया था। खाना खाने के बाद सब राजकुमार सोने चले गए। परंतु उनमें अर्जुन ना था। अब तक लगभग सभी राजकुमार सो गए थे। तभी छपाक की आवाज आई। आवाज आश्रम के साथ बहने वाली नदी में से आई थी।
जैसे कोई पक्षी या जानवर पानी में कूदा हो। आवाज सुनकर गुरु जी आश्रम के बाहर आए। उनके साथ कुछ राजकुमार भी थे। उन्हें बाहर एक मानव आकृति दिखाई दी। गुरुजी शिष्यों के साथ उस मानव आकृति की ओर चल दिए। थोड़ा और निकट होने पर वह उस आकृति को पहचान गए वह। अर्जुन था।
उन्होंने देखा कि अर्जुन हाथ में अपना तीर कमान लेकर आंखें मूंदे खड़ा है। किसी पक्षी या जानवर की थोड़ी सी आवाज सुनकर वह आवाज की दिशा में तीर चला देता। अभी थोड़ी देर पहले जो आवाज आई थी। वह भी आवाज की दिशा में चलाए गए तीर के कारण ही थी। एक पक्षी उड़ रहा था उसके पंखों की आवाज सुनकर अर्जुन ने तीर चला दिया।
तीर पक्षी को ठीक उस वक्त लगा जब वह पानी के ऊपर से उड़ रहा था। गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ अर्जुन के पास पहुंचे वहां जाकर ध्यान मग्न अर्जुन की पीठ पर हाथ रखा और पूछा। तुम अकेले इस अंधकार में क्या कर रहे हो ? अर्जुन ने चौंक कर पीछे देखा तो उसने द्रोणाचार्य को शिष्यों के साथ खड़ा पाया।
उसने उनके चरण स्पर्श किए और बोला गुरूजी मैं तीर चलाने का अभ्यास कर रहा हूं। एक कौरव राजकुमार ने उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा। क्यों दिन में निशाना नहीं लगता क्या ? इससे पहले कि अर्जुन कुछ कहता। गुरु जी ने अर्जुन से पूछा। बेटा रात में तुम लक्ष्य कैसे साध पाओगे ? इस पर अर्जुन ने कहा – गुरु जी आज जब हम खाना खा रहे थे। तो दीपक बुझ गया था।
परंतु फिर भी हम सब ने खाना खाया। अंधेरे में भी सभी का हाथ सीधे मुख में ही जा रहा था। कहीं और नहीं गया। इससे मुझे मालूम हो गया कि आंखों के काम लिए बिना भी हमारे हाथ स्वयं लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। तब भला में अपने ध्यान और हाथों को भी क्यों ना पढ़ा लूँ। दूसरा मैंने यह भी जान लिया कि निरंतर अभ्यास से भी हमें सफलता अवश्य मिल जाती है।
यही कारण है कि मैं अंधेरे में भी तीर चलाने का अभ्यास कर रहा हूं। इस पर गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन को गले लगाते हुए इस नियम की स्थापना की कि निरंतर अभ्यास के द्वारा मनुष्य को भी साथ लेता है। एकाग्रता से मनुष्य अपने ज्ञान की आंखें खोल लेता है। तब रुकावटें उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाती। अंत में वह अपना उद्देश्य प्राप्त कर लेता है।
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